पौराणिक युग तक आते-आते नृपतंत्र की  वह बहुत पुरानी हो चुकी थी, बाय अधिकृत तौर पर लोक में शासन के तौर पर आ गया था । हालांकि उसके प्रजा पालक बने रहने के लिए और अच्छा बना रहने के लिए कई नैतिकताएं भी स्थापित हो रही थी और इस तरह नृपतंत्र अपने राज दंड के साथ प्रजा का हित  भी कर रहा था और कहीं कहीं उसका अहित भी हो ही जाता था। लेकिन जो लोक था, उसकी सलंग्नता, लोक में उसकी सलंग्नता, प्रजा में शासक  के तौर पर ही थी । उसकी कोई और सलंग्नता उसमें नहीं थी। सूरदास का काव्य विषय लोक वाला वह समाज है, जिसमें श्रमजीवी वर्ग अपने पूरे लोक के साथ में प्रकट होता रहता है । वह हमें दिखाई देता है। एक जगह  उन्होंने एक पद में लिखा है –

खेलत में  को  काको गुसईयां

हरि हारे जीते श्रीदामा नाहक ही कत  करत रिसइया

अति अधिकार जतावत याते  अधिक तुम्हारे हैं कछु  गईया।

 नंद जमींदार थे अपने समाज के। नंद के पालित पुत्र के बारे में इस तरह कहने की हिम्मत, उसे खेल की भावना में छोटा या बड़ा कोई नहीं होता। इसके अलावा भी इन पंक्तियों में जो आया है, वह यही हो रहा है कि दो दो चीजों का महत्व प्रकट होता है। एक तो यह वाक्य की ‘अति अधिकार जनावत याते हैं कछु अधिक तुम्हारे गईया’ यानी कि तुम आर्थिक संपन्नता में बड़े हो तो तुम अधिकार जमा रहे हो,कि हार जाने के बाद भी कह रहे हो, हम नहीं हारे, हम नहीं हारे।

 श्री कृष्ण हार गए हैं श्रीदामा  जीत गए हैं, तो उस हार को स्वीकार कर लेना चाहिए। केवल इसलिए नहीं कि हम आर्थिक संपन्नता से बड़े हो गए हैं । आर्थिक संपन्नता से लोगों ने प्रभाव तो माना है, पूजा कभी नहीं की। भारतीय मनीषा इस तरह की है कि उसने बड़ा तो कहने को तो कह दिया, उस तरह जैसे कि कहते हैं ‘ वह हमारे गांव के बड़े आदमी हैं’ अब बड़े होने का उनका मतलब यही था, कि उनके पास अधिक पैसा है, यह तो कह दिया, लेकिन यह नहीं कहा कि वह हमारे समाज के आदर्श पुरुष हैं, वे हमारे समाज के पूज्य हैं ! तो इस तरह लोक चेतना जो सूरदास के काव्य में समाज के बारे में आती है, ठीक नृपतंत्र के  बीच लोकतंत्र की कौंध जैसी दिखाई देती है। जबकि हम विकास के चरणों पर ध्यान दें, तो होते होते लोक में राजतंत्र का उदय होता है और राजतंत्र के बहुत बाद आज के संदर्भ में बड़ी-बड़ी क्रांतियां होने के बाद में हम राजतंत्र से मुक्त होकर लोकतंत्र में आते हैं। जो कि बहुत गहन गंभीर अर्थों में लोकतंत्र नहीं है।

 दूसरी बात यहां पर एक सामाजिक महत्व की बात और जुड़ी हुई है। जैसा कि ग्वाल वाल कहते हैं कि ‘है कछु अधिक तुम्हारे गईया’  आज का व्यक्ति अगर कह रहा होता तो कहता ‘तुम बिलेनियर हो’ ‘तुम मिलेनियम हो’ लेकिन उस समय के लिए कहा जा रहा है कि ‘आपके पास गईया ज्यादा है तो क्या इससे तुम अधिकार संपन्न हो जाओगे’ उसे युग में गईया सामाजिक ईकई थी।  एक तरह से और विभिन्न अवसरों पर जो ऋषियों को और पंडितों को दान दिए जाते रहे हैं। आचार्य को दिए जाते रहे हैं। उन में गाय बहुत ज्यादा हैं। गाय का महत्व भी काफी है। तो एक तरह से वह यानी गाय चलित मुद्रा थी। गाय उस समय की चलित मुद्रा थी। तो इस तरह सूरदास इतनी आत्मीयता के  साथ देखते हैं इसको, कि ‘हे कृष्ण भाई तुम तो देखिए’ उनका मतलब यानी सूरदास का मतलब इतना है कि यह जो श्रमजीवी वर्ग है,💐 इस वर्ग का एक लक्षण यह होता है कि इसमें बड़ा और छोटा होते हुए भी इसमें व्यवहार में लेन-देन में छोटा बड़ा नहीं होता है।  दूसरी बात इसमें है कि इसमें स्त्री और पुरुष दोनों समानता के साथ काम करते हैं, मेहनत परिश्रम करते हैं यानी जो कुछ भी करते हैं उसमें यह टैबू  नहीं बनाते,  टैबू नहीं बनाया गया है कि स्त्री बाहर नहीं निकलेगी। राजतंत्र में धीरे-धीरे आने के बाद यानी काफी बात एक टैबू बन गया। सूर के लोकतंत्र की यह चेतना इसलिए बड़ी है कि वह गोप समाज है, वह यादवों का समाज है , जिसके लिए विद्वानों ने कहा है कि यह जो आभीर हैं और आज अहीर कहलाते हैं, यह आभीर इन देश में बाहर से आई हुई जाति है। तो इसीलिए क्योंकि यह बाहर से आई हुई जाति है, उनकी रेस बनी हुई है। इसीलिए सूरदास कहते हैं कि ‘गोरे नंद यशोदा गोरी , तुम कत श्याम शरीर’ एक लक्षण यह है कि आज भी अगर हम ज्यादातर देखते हैं तो यह अहीर यानी जो आभीर जाति है, इसमें रंग यानी वर्ण की उज्जवलता बनी हुई है। यह लोक के साथ जुड़े होने के अन्य बहुत संदर्भ हैं।

 सूर के काव्य में नंद जमीदार हैं, उनकी पत्नी जसोदा से सूरदास कहलाते हैं –

संदेशों देव की सों कहियो ‘

उद्धव आते हैं तो यशोदा कहती हैं

संदेशों देव की सों कहियो ‘

हों तो धाय तिहारे  हो सुत  की मया करत ही रहियो

 मैं माँ नहीं हूं धाय हूं तुम्हारे इस बच्चे की।

भले ही बाद में माँ को यह कहते ना पड़ता है कि ‘हो माता तू पूत ‘ जब बलदाऊ उसको खिझाते हैं और कहते हैं कि ‘तुमको तो मोल लिया गया है! नहीं तो तुम काले क्यों हो?’ तब यशोदा मां कहती है कि बलदाऊ तो जनमत ही को धूत है, धूर्त है और हों माता तू पूत।

 इस तरह के जो हमारे संबंध हैं लोक और शिष्ट समाज के, दोनों में थोड़ा सा अंतर हो जाता है । हमको चाहे हम उसे नैतिकता का लें या कुछ और का लें, शिष्ट समाज में संबंधों में, हम हमको उसका पालन करना होता है मर्यादा का, या नैतिकता का और वह संबंधों में हमें कहां दिखाई देती है ।जैसे हम अपने परिवार के बड़ों को संबोधित करते हैं ,तो बड़ों को संबोधित करने में हमको आदरणीय जैसा कुछ प्रकट करना होता है, जबकि  लोक समाज में विशेष रूप से बुंदेलखंड में पूछा जाता है ‘ते का गओ  तो?’ अभी तक वे बाप के लिए भी यही कह सकते हैं और पिता भी पुत्र के लिए यही कह सकता है। यह स्वाभाविकता भी मिलती है हमें लोक में, तो यह छोटा सा एक उदाहरण है।

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