राम गोपाल भावुक



                                        

राजनारायण बोहरे के अस्थान उपन्यास के पृष्ठों को पलटते हुए पाठक आदिकाल से प्रचलित आश्रम प्रणाली की प्राचीन प़द्ध़ति -जिसने देश  और समाज को व्यवस्थित बनाये रखा है – से वर्तमान पद्धति की तुलना मन ही मन करने लगता हैं।
         प्रख्यात कहानीकार मैत्रेयी पुष्पा जी की भूमिका का पहला शब्द ‘‘ठड़ेसुरी बाबा” पढ़ते ही पाठक के मन में विम्ब का निर्माण  होने लगता है। पाठक  ‘‘अस्थान’’ का अर्थ जानने के लिये व्यग्र हो उठता है।

उपन्यास की मूल कथा में दो साधु रेल में यात्रा कर रहे हैं, एक ओमदास जी दूसरे धरणीधर। यह बात धरणीधर जान चुका है कि ओमदास परम्परागत असली संप्रदाय दीक्षित साधु हैं, लेकिन धरणीधर मनमुखी साधु यानि एक प्रवचनकर्ता मात्र है जो अपनी इज्जत बढ़ाने के वास्ते अपने नाम का बडा बोर्ड लगाकर नकली साधु बन बैठा है। निश्चय ही साधु परम्परा में टकसाली साधु की बड़ी मान्यता हैं लेकिन खड़िया साधु की नहीं। लेखक ने होम वर्क करके इस सम्बन्ध में सारी जानकारी एकत्रित की है, जिसे जानना पाठक को रूचिकर लगेगा ।
ओमदास टकसाली साधु हैं , जो टिकिट लेकर यात्रा करते हैं। उन्होंने राम मन्दिर के आन्दोलन में कार सेवकों की मदद भी की थी। ओमदास के परिचय पूछने पर धरणीधर स्वीकारता है कि हम तो प्रवचनियाँ हैं , कैसे भी एक अस्थान बना लिये हैं, रहने का ठौर ठिकाना चाहिए था न, इसलिये।

 रेल यात्रा के दौरान बातचीत करते हुए ओमदास की स्मृति में आश्रम का माहौल साकार होकर सामने आ जाता है। आश्रम के जयकारे की ध्वनि उसके साथ पाठक के मस्तिष्क में गूँजने लगती हैं।

लेखक तमाम किवदंतियों के सहारे  पाठक को बताता चलता है कि  लक्ष्मणजी ऊधमी थे उन्हें यग्य रक्षा के लिए विश्व मित्र साथ ले गये थे तबसे यह बात फैली कि ऊधमी बच्चों को बाबा पकड़ ले जाता है . 
           रेल यात्रा में आगे चलकर एक स्टेशन  से ट्रेन  के उस डिब्बे में एक विद्यालय के बालक चढ़ते हैं उनकी मैमं बच्चों को अंताक्षरी सिखाने लगती हैं-
                 समय काटने के लिये करना है कुछ काम।
                 शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम।।
          अगले स्टेशन  पर बच्चे ट्रेन  से तो उतर जाते हैं लेकिन धरणीधर बचपन की यादों की गुफा में उतरता चला जाता है ।
          बच्चों के अंताक्षरी प्रसंग से जुड़कर उसे  अपने बचपन का अंताक्षरी वाला प्रसंग याद हो आता है। धरणीधर जब कक्षा आठ के छात्र थे। वे अपने मित्र रेवतीरमन और वनविहारी के साथ अंताक्षरी की तैयारी करने लगे थे। इस बहाने धरणीधर को दोहे और चैपाइयाँ याद होने लगी। इसके साथ वे अन्य ग्रंथों जैसे राधेश्याम रामायण और साकेत की पंक्तियाँ भी याद करने लगे।
          कस्बे में रामनिवास पंडित जी रामलीला का मंचन हर साल करते आ रहे थे। धरणीधर रामलीला में लक्ष्मण का अभिनय करने लगा था। उसके अच्छे अभिनय के कारण गली चलते कस्बे के लोग उसे लक्ष्मण के नाम से पुकारने लगे थे।
            आगे चलकर बोहरे जी को दृश्य  बदलना था तो वे पहले स्टेशन  पर ट्रेन  के थमते ही थाने का दृश्य दिखा देते हैं और धरणीधर को याद  करा देते हैं कि धरणीधर के पिता जी ऐसे ही थाने में बैठे रहते थे।           …गाँव में चुनाव की राजनीति से ‘षड्यंत्र रचा गया। इनके पिता मुरलीधर शास्त्री ने लच्छू महाते के निवेदन करने पर भी बोट देने के लिए जनेऊ की सौगन्ध नहीं खाई थी जिसके परिणाम स्वरूप लच्छू माते के लठैत ने किसी का कत्ल करके गाँव के बाहर फेंक दिया और शंका में धरणीधर और उसके दोनों मित्रों को फसवा दिया। वे निरपराध ही पुलिस के विकट चक्कर में फस गये थे।
                     उन्हीं दिनों मथुरा के मशालवाले गुरु जी कस्बे में आये। वे देश  व्यापी भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने तीनों की प्रतिभा देखकर इनसे सारी सुविधायें देने का वादा भी किया और साथ चलने को कहा।  धरणीधर के घर के लोगों ने जाने की मना कर दी, लेकिन वनविहारी उनके साथ सज सम्हर कर चला गया।
           
          बेराजगारी के दिनों में उसे याद हो आई बनवारी कक्का की। वे तहसील से जारी होने वाले नाटिस इत्यादि के जवाब तैयार करने के काम के जानकार थे । इसलिये गाँव के लोग उनका बहुत ही सम्मान करते थे। धरणीधर ने उनकी प्रेरणा से  एल एल-बी का मन बनाया पर उनको एडमिशन                 … मिल पाया नही        धरणीधर अपने गांव में प्रवचन करने आये पंडित रामजस से श्रद्धा  भाव से मिले तो उन्होंने धरणीधर को फालतू बैठने के बजाय महाभारत और रामायण के दैनिक अध्ध्य य न और उनकी चर्चा  करने का रास्ता सुझाया।
           धरणीधर जान गया था कि प्रवचनकर्ता को किसी डिग्री की जरूरत नहीं है , लेकिन अच्छे प्रवचन कर्ता बनने के उदेश्य से विधिवत प्रवचन की तैयारी करने के लिये अयोध्या जाने की राह पकड़ली, लेकिन वहाँ का माहौल भी अनुकूल नही लगा तो वापस लौट आया।
           एक अध्याय  में धरणीधर को  याद हो आई गाँव के पुरुषोत्तम मास में सुनाई गई कथा की। जिसमें दमयंती भाभी ने बहुत ही सहयोग किया था। पुरुषोत्तम  मास में महिलाओं के स्नान और कथा श्रवण  की यह संस्कृति अब विदा सी हो रही है। जिसका बोहरे जी ने सजीव वर्णन किया है।
          ठड़ेसुरी बाबा ने यज्ञ कराया था, जिसमें  ऐसे बड़े- बड़े पदवीधारी महात्मा पधारे थे जो जगतगुरु की पदवी लगाते थे। ठड़ेसुरी बाबा ने धरणीधर से कहा था, बच्चा इसमें तेरी भी कथा होगी। कार्यक्रम के अंत में पांच सौ एक रुपये की दक्षिणा भी मिली थी। इस तरह घीरे-धीरे वे निपुण और धुरंधर प्रवचन कर्ता बनते चले गये।
            इस प्रकार एक छात्र से प्रवचन कर्ता के रूप में विकास की कहानी के रूप में उपन्यास आगे बढ़ता चला जाता है।

            बनविहारी जो प्रवचन करने हेतु एक बड़े  मशालवाले गुरूजी के साथ चला गया था, वह अब बड़ी अध्यात्मिक कम्पनी का प्रवचनकर्ता हो गया है। उसे बड़े-बड़े पेकेज मिलने लगे हैं। उसकी प्रगति से घरनीधर भी प्रभावित होता है। उसके मन में कहीं न कहीं आश्रम बनाने की बात सूझने लगती है। वह जहाँ भी जाता  है आश्रम बनाने के लिये जमीन तलाशने लगता है।
            गुजरात में एक बार गुरु सेवाराम बाबा के बुलाने पर ये वहाँ पहुँच जाता हैं। गुरु सेवाराम बाबा भी स्वनाम धन्य गुरू है। उनके नजदीक रहकर धरणीधर किसी आश्रम के गुरु बनने के रास्ते जान जाता है, बदले में उन्हें रामायण प्रवचन के कुछ गुर बताता है। वह उनसे अनुमति लेकर ही उनके आश्रम से बापस आ पाता है।
            जीवन की राहें तलाशते धरणीधर को एक संयोग हाथ लगता है। विधायक जयराज जी का फोन उनके पास आया। उन्होंने धरणीधर को प्रवचन के लिये आमंत्रित किया है।
गाँव के मन्दिर के पुजारी मुरलीधर के लम्बे समय से गायव होने से और धरणीधर के पिता जी का नाम मुरलीधर होने से विधायक जी अपने प्रभाव का उपयोग करके कलेक्टर से धरणीधर को  पुजारी नियुक्त करा देते हैं । अब तो विधायक जयराज जी के सहयोग से धरणीधर ने अपने आश्रम का नये तरीके से विकास  कर डाला। अपने रहने के लिये सुन्दर कक्ष बनवा लिये। एक अध्याय में उज्जैन कुम्भ के दौरान धरणीधर को याद आने लगी कि वे नागा साधुओं के दशनामी शिविर के सामने से निकल रहे थे। भीतर कोई संत नागा साधुओं का इतिहास बतला रहे थे। दशनामी साधुओं में गिरि, पुरी, भारती, वन, अरण्य,, सागर, पर्वत, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती के नाम गिना रहे थे। धरणीधर ने भी कुम्भ में अपना शिविर स्थापित करने के वास्ते अपने नाम के आगे झूठमूठ जगत्गुरु लिखवाकर साइन बोर्ड लगवा दिया था।
इस कुम्भ में शंकराचार्य महाराज भी आये हुए थे, वे चार शंकराचार्य , जिनके पीठ आदिगुरु शंकराचार्य ने स्थापित किये थे। धरणीधर को अचरज हुआ कि कुम्भ में     ने के लिये एक सौ चालीस साधु लोगों ने शंकराचार्य ने नाम से आवेदन लगाये थे, वे चौंके  अरे चार से एक सौ चालीस शंकराचार्य ने कहां से आ गये, बड़ा फर्जीबाड़ा है। धरणीधर समझ गये कि साधुओं में किसी के कुछ भी पद लिखने पर कोई रोक नहीं है।
         धरणीधर जब अपने आश्रम में लौटे तो अपने आश्रम के प्रमुख द्वार पर उपशंकराचार्य का बड़ा सा वोर्ड लगवा दिया।
          यादों की गुफा से बाहर लौटकर धरणीधर ने अपने साथ यात्रा कर रहे स्वामी ओमदास से पूछा -‘आप ने वैराग्य कब लिया स्वामी जी?’
इस जिज्ञासा पर  ओमदास ने अपने जीवन की सम्पूर्ण कथा ही उन्हें सुना दी कि कुल परम्परा में घर का मंझला लड़का क्वाँरा रहता है। इसलिये इनकी‘शादी ब्याह नहीं किया गया। छोटे भाई की शादी हो गई। घर का कामकाज इन पर लाद दिया गया। गाँव में साधुओं की एक जमात आई। ये उनके साथ भाग आये। महंत जी की सेवा एवं बर्तन धोने का काम पूरी निष्ठ से किया इसी आश्रम पर प्रयागदास जी ने उन्हें कण्ठी प्रदान कर दी। इन्हें परम्परागत विधि विधान से सन्यासी का बाना धारण कराया।
         अगले अध्याय में धरणीधर की मुलाकात बडोदरा के मानस सम्मेलन में प्रवचन करने आयी केशरी मयी से हुई। वे सूर्य को आर्ध देने छत पर गये थे, वहीं बाल सुखाते हुये वे दिखीं थीं। पता चला वे इसी सम्मेलन में प्रवचन देने आयी हैं। आज रात वे सो नहीं सके। केशर मयी की सुन्दर छवि आँखों में झूमती रही। हुई। यहाँ आकर पाठक सोचने लगता है चलो अभी तक साधु संतों की परम्परा की चर्चा सुनते- सुनते कुछ नया सुनने को मिलेगा।  अतीव सुन्दरी केशरी मयी का नाम सामने आते ही पाठक ने उपन्यास को  कस कर पकड लिया ।
      केशर मयी के मिलने के दूसरे दिन प्रवचन में धरणीधर ने श्रृंगार  रस से सराबोर नारद मोह की कथा सुनाई  यहां केशरमयी उनसे  प्रभावित हुई। धरणीधर बोले  सुन्दर बदन दिये हैं भगवान आपको।
        यह सुनकर केशर शरमा गयी तो धरणीधर का हौसला बढ़ गया। ये केशर पहले आॅकेस्ट्रा पार्टी में काम करतीं थीं। रेवती  के परामर्श से प्रवचन के इस काम में आयी हैं।  
        इस मिलन के बाद तो इनका अनेक कार्यक्रमों में साथ-साथ जाना होने लगा। दोनों एक दूसरे के नजदीक आते चले गये।
        एक दिन तो केशर जी को साथ लेकर अपने आश्रम में जा पहुँचे और उन्हें पूरा आश्रम दिखाया। अपने रहने के कमरे के पास ही एक कमरे में इनके रहने की व्यवस्था कर दी। अब वे जहाँ भी प्रवचन देने जाते केशर जी भी इनके साथ ही जाती थीं।
        मद्रास के एक मन्दिर का सौवाँ स्थापना दिवस मनाया जाना था। घरनीधर और केशर दोनों का ही बुलावा आया। जब ये दोनों वहाँ पहुँचे तो पता लगा कि इस स्थल से केवल पचास किलोमीटर ही दूर था कांचीपुरम्। जहाँ शकराचार्य ने अपना स्थाई पीठ बनाया था। बातचीत के बाद दोनों ने वहाँ जाना उचित समझा।         इस यात्रा के दोरान केशर के कहने से साधु-संतों के वस्त्र त्याग कर दोनों ही आधुनिक गृहस्थ के फैशनेबुल वस्त्रों में यात्रा प पत्नी की तरह उन मठों और मन्दिरों की यात्रा की ।
                
             अभी तक कथाकार बोहरे धरणीधर को प्रवचन कर्ता के रूप    शनै :   शनैः विकसित  करते रहे थे। अब कहानी में केशर की उपस्थिति से नया मोड़ आता दिख रहा है। पाठक को लगने लगा है कि जब तक धरणीधर का चरित्र ठीक रहा, वह इस रास्ते में प्रगति करता चला गया, दक्षिण भारत से भी बुलावा आने लगे , किन्तु उसके चरित्र में गिरावट दिखाकर कहीं उसके पतन का रास्ता तो नहीं दिखा रहे हंै। निश्चय ही इस रास्ते में चरित्र का महत्व तो है ही। जो हो उपन्यास रुचिकर तो हो ही गया है देखें आगे के पृष्ठों में क्या होता है?
           रेल यात्रा कर रहा धरणीधर अखबार खरीदकर धर्म के गोरख धन्धे की अनेक खबरें पढ़ने लगता है।  उसे याद आने लगता है एक सुबह  वह दिशा मैदान से लौटा तो चोकी दार ने बताया कि आश्रम के केंम्पस में किसी नग्न स्त्री की लाश पड़ी है। वह इस बात की सूचना देने थाने चला गया।

      जब धरणीधर से पूछताछ हुई तो दरोगा के इनका नाम पूछने पर इनके प्रिय शिष्य शैवाल ने दरोगा जी से कहा-‘ आप इन्हें नहीं जानते दरोगा जी, जगदगुरु हैं हमारे गुरुदेव। इनके नाम के आगे उपशंकराचार्य की पदवी लगती है।’
      धरणीधर ने इन्हें इशारे से उसे मना कर दिया और अपना नाम बतला दिया प्रचंडानंद । लेकिन पश्चाताप करने लगे सरकारी अभिलेख में तो यह नाम नहीं है।
दरोगा जी के जाने के बाद मीडिया वालों ने इन्हें घेर लिया और ईश्वर, अध्यात्म से सम्बन्धित अनेक प्रश्न करने लगे।
जब वह सूचना देकर लौटा तब तक पुलिस लाश को ले जा चुकी थी।  पता नहीं चल रहा था कि यह किसकी है। पुलिस केशर की लाश होने पर, सन्देह कर रही थी तो इन्हें केशर को बुुलाकर थाने भेजना पडा। दूसरे दिन केशर आश्रम से लौट गई तो मीडिया वाले इस बात में भी सन्देह करने लगे।
धरणीधर को अपना अतीत याद आता है, वे जानते हैं कि अखबारों को कुछ नया-नया समाचार रोज छपने के लिए चाहिये। इसलिये अखबारों में नग्न स्त्री की लाश के प्रकरण को ही लम्बा खीच रहे हंै । उधर जनता के लोग जुलूस बना कर आश्रम को घेरते रहते हैं। इस सबसे से परेशान होकर धरणीधर हर यात्रा में इस टोह में भी रहने लगे हैं  इस आश्रम को बेचकर किसी अन्य जगह आश्रम बना लें।
         धरणीधर और केशर प्रवचन के कार्य से लौटकर आये। दोंनों केशर के कमरे में एक ही बिस्तर पर थे कि अचानक उज्जैन कुम्भ में जाने के लिये चार- पांच बन्द गाड़ियों में नागा बाबाओं की जमात आ धमकी। धरणीधर ने केशर के कमरे में से निकलकर अपने कपड़े पहने और उन बाबाओं को दरवाजा खटखटाते देख, किवाड़ खोलने जा पहुंचे।
      बहुत से नागा सन्यासी देखकर धरणीधर ने सोचा- किस से सहायता लें, बुद्धि ने काम करना बन्द कर दिया। नागा बाबालों ने बताया कि उपशंकराचार्य का बोर्ड़ लगा देखकर वे अन्दर आ गये थे। उन्होंने केशर को आश्रम में देखा तो धरणीधर से पूछा यह नरकगामिनी कौन है।
       इन्होंने कहा-‘ यह मेरी भामनी है।’
       नागा बाबाओं के गुस्सा करने पर धरणीधर ने कैसे भी केशर को अपने शिष्य शैवाल के घर भेज दिया। नागा साधु जान गये, यह टकसाली साधु नहीं है। यह तो खडिया है।उन्होंने धरणीधर की मारपीट भी कर दी। उसे एक कमरे में बन्द कर दिया और पूरे आश्रम को उन्होंने अपने कब्जे में कर लिया।
       वे दिनभर आश्रम में रहे और वे जाते- जाते धरणीधर को हिदायत भी दे गये कि हम एक माह बाद लौटेंगे। उस समय तक तुम अपना बन्दोबस्त कर लो। उसके बाद हमारा महंत इस आश्रम की व्यवस्था देखेगा। वे इस बात की पुलिस में रिपोर्ट भी कर गये।
         पुलिस दारोगा सुबह आश्रम में आए । उन्होंने बताया कि उस अंजान स्त्री की लाश का मामला सुरझ चुका है, वह लाश पास के गाँव में रहने वाले किसान की पत्नी की थी। चरित्र के सन्देह में उसने उसकी हत्या की थी। वह पकड़ा जा चुका है। इस केस से आश्रम का कोई सम्बन्ध नहीं है। इस बात से तो धरणीधर को राहत मिल गई।
         उसी समय शैवाल के यहां से केशर आश्रम में लौटी। दारोगा चला गया।       केशर अपनी वेइज्जती का रोना- रोने लगी। धरणीधर ने समझाया-‘हम ब्याह कर लेते हैं।’
         वह बोली-‘हमारे घर की ऐसी स्थिति नहीं है कि हम ब्याह कर सके।’ यह कहकर वह अपने कमरे में जाकर अपनी अटेची लगाने लगी। धरणीधर ने उसे रोकना चाहा। उसी समय धरणीधर का थाने से बुलाना आ गया तो उसे जाना पड़ा। जब लौटा तो केशर उसी कमरे में आराम कर रही थी। बातों बातों में धरणीधर ने उसके एक चाँटा जड़ दिया।
         किसी तरह आश्रम से निकल कर केशर ने  पुलिस को शिकायत  कर दी। पुलिस ने थाने बुलाया तो दुखी  धरणीधर ने समझाया वह मेरी शिष्या है। मैंने उसे बच्चे की तरह समझाने के लिये चाँटा मारा है। केशर ने भी बात आगे नहीं बढ़ाई। वह पुलिस की सहायता सें अपना सामान लेकर  अपने घर चली गई।
         कहानी पढ़ते हुए हम इसके अन्तिम तेइसवें अध्याय पर आ गये हैं। जब धरणीधर आश्रम में लौटा तो आँखें नीचीं थीं। वह समझ गया था कि  अब इज्जत के साथ यहाँ रहना कठिन है।  यह आश्रम छोड़ देने में ही भलाई है। यहाँ से कहीं दूर जाकर इज्जत से जीवन जियेंगे। साधना में लग जायेंगे। न होगा तो अपने गाँव में जाकर अपने घर के लोगों के साथ रहेंगे। सम्भव हुआ तो किसी आश्रम में डेरा डाल लेंगे। नये तरह से जिन्दगी जियेंगे।
        यही सोचते हुए वह स्टेशन जा पहुँचा। वहाँ रेल की प्रतिक्षा में बैंच पर बैठे एक बाबा जी दिखे। धरणीधर उन्हीं के पास पहुँच गये। वहीं इनका ओमदास जी से परिचय हुआ। पूछने पर पता चला वे टकसाली साधु है। ओमदास भी घर वापस जा रहे थे, वे  बोले जा रहे थे- अपना वेश हमने इसलिये नहीं उतारा कि अब गाँव जाकर ही वेश का अंतिम संस्कार करेंगे। यही सोचकर इस ट्रेन ट्रेन में बैठ गये है जो हमें गाँव ले जा रही है।
   धरणीधर सोच रहे थे कि  यहां से बहुत दूर किसी नदी किनारे नया आश्रम बना कर वैरागी बनकर रहेंगे।
  यह कथानक  अस्थान उपन्यास का सार संक्षिप्त तो है, लेकिन अस्थान संस्कति के बारे में सम्पूर्ण तथ्यों को जानने के लिये पूरा उपन्यास तो पढना ही पडे़गा।
  यह कृति साधु समाज की परम्पराओं की शल्य क्रिया करती हुई पाठक को बाँधे रहती है। बोहरे जी के आडा वक्त उपन्यास की तरह यह कृति भी रेल यात्रा में ही रेल के दृश्योंें की घटनाओं से समन्वय करके आगे बढ़ाई गई है।
  विधायक जयराज उनके आश्रम में सभायें इत्यादि तो करता है, लेकिन आश्रम स्थापित कराने से पहले विधायक जयराज को धरणीधर से वोटों की सौदेबाजी की बात जरूर कराना चाहिए थी। नेता ऐसे नहीं होते कि दूसरों के लिये बिना स्वार्थ के कुछ  भी करें।
 सम्पूर्ण उपन्यास में सधुक्कड़ी भाषा में अस्थान संस्कृति एवं साधुओं के साँय साँय बजते खाली जीवन पर गहरा विश्लेषण किया है। जिसमें उन साधुओं के ढंग से खोज खबर ली है जो ना किसी सम्प्रदाय से दीक्षित हुए और ना किसी अखाड़े द्वारे से आये, बल्कि मनमुखी साधु के रूप में ऐसो- आराम की चीजें जुटाकर मजे करते हंै और सम्पूर्ण साधु समाज को ना हक बदनाम करते हैं। ऐसे श्रम साध्य कार्य के लिये बोहरे जी बहुत बहुत बधाई के पात्र हैं।
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  कृतिका नाम –  अस्थान उपन्यास
  कृतिकार-राजनारायण बोहरे
  प्रकाषक-  सेतु प्रकाषन प्रा. लि.दिल्ली-110092
   मुल्य-     पेपर बैक-250 रु.
   वर्ष-       2022
सम्पर्क-रामगोपाल भावुक कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला  
       ग्वालियर म. प्र. 475110 मो0 9425715707, 8770554097

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