वे कई दिनों से नहीं मिली थीं।
मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा था, अचानक हंसती-मुस्कराती सामने आ खड़ी हुईं।… दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।
‘कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!
‘खाने के लिए….’ मैं मुस्कराया।
‘चलो, आज कहीं बाहर चलते हैं, वहीं खा-पी लेंगे।’ उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा।
दिल की धक्धक् और तेज हो गई। सौभाग्य ओरछोर बरस रहा था। मदहोश-सा मैं उनके क़दम से क़दम मिला कर चल पड़ा… फिर कब हमने ऑटो लिया और कब ‘फेमिली हट्ज’ पहुंच गए, जैसे- पता नहीं चला।
अपने शहर से बी.एस-सी. करके यहां साइकोलॉजी में एम.ए. करने आया था। वे यदाकदा मैट्रो में मिल जाती थीं। जाने क्या जादू था उस चितवन में कि मैं दो-तीन दिन तक भुला नहीं पाता। पर पूछ भी नहीं पाता कि आप आगे कहां तक जाती हैं, कहां काम करती हैं- मिस?
हमेशा बौद्धिक बातें करतीं। बात करते-करते एक दिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे इस पारंपरिक नाम के वजाय सिर्फ जितेन कहं- तो बुरा तो नहीं मानोगे।’
कुछ दिनों बाद शहर में फिल्म महोत्सव चल रहा था। एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ी- वे एक तगड़े-से आदमी के साथ मेरे पीछे वाली लाइन में बैठी थीं! फिर मुझे पता नहीं चला कि हॉल में कौन-सी फिल्म चली और उसकी कहानी क्या थी?
मैं साइकोलॉजी में एम.ए. कर रहा था… मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आ रहा था।