कहानी- इलाज़

आज आपके फकीरचन्द ने एक और आदमी मार डाला ’ मिश्रा जी जब भी आते हैं ऐसा ही कोई विलक्षण जुमला बोलकर घर में इंट्री करते हैं। मैंने मुस्कराते हुए पूछा-‘किसे मार दिया यार !’           ‘‘वो धर्मपुरा के किसान की बेटी थी। …बिना मर्ज पहचाने इंजेक्शन भोंक दिया उसे और बोतल चढ़ा दी। राम […]

समीक्षा – नकली असली साधू परंपरा से जूझता उपन्यास अस्थान राम गोपाल भावुक

राम गोपाल भावुक                                          राजनारायण बोहरे के अस्थान उपन्यास के पृष्ठों को पलटते हुए पाठक आदिकाल से प्रचलित आश्रम प्रणाली की प्राचीन प़द्ध़ति -जिसने देश  और समाज को व्यवस्थित बनाये रखा है – से वर्तमान पद्धति की तुलना मन ही मन करने लगता हैं।         प्रख्यात कहानीकार मैत्रेयी पुष्पा जी की भूमिका […]

राजनारायण बोहरे के साहित्य में सामाजिक समरसता

                                                                    डॉ पद्मा शर्मा एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्रात्मा कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च  (श्वेताश्वतरोपनिषद्,6.11)           सामाजिक समरसता से तात्पर्य समानता, सम्मान एवं सौहार्द्र का भाव है। संगीत के क्षेत्र में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द (भ्ंतउवदल) समरसता का तात्पर्य मूलतः विशिष्ट ध्वनियों के बीच समुचित संयोजन से है। जिससे संगीत की मधुर […]

समीक्षा

समीक्षा तंत्र के मख़ौल का जवाब- “हल्ला” (रामभरोसे मिश्रा) राजनारायण बोहरे का नया कहानी संग्रह “हल्ला” पिछले दिनों इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के यहां से प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में रोचक ढंग से  लिखी राज बोहरे की 10 कहानियाँ शामिल हैं। यह कहानियां पाठक को गहरे से प्रभावित करती हैं, कहानी शुरू होते […]

असफल जी की कहानी -सुलक्षणा

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वे कई दिनों से नहीं मिली थीं। मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा था,  अचानक हंसती-मुस्कराती सामने आ खड़ी हुईं।… दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।                ‘कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!                ‘खाने के लिए….’ मैं मुस्कराया।                ‘चलो, […]

मलंगी​

मलंगी एक सौ वर्ष पुरानी इन्दोर की पत्रिका वीणा में प्रकाशित हुई मलंगी कहानी मैंने एक नजर चारों ओर देखा, तो पाया कि वहाँ केवल बच्चे ही नहीं थे, बल्कि मोहल्ले-भर की औरतें भी जुट आई थी।                बीजुरी वाली जीजी द्रवित होती हुई कह रही थीं, ” इस बेचारी ने जिंदगी-भर सबकी सेवा की है, जाने कौन-सा पाप हो […]

असफल जी की कहानी -सुलक्षणा​

सुलक्षणा a asfal ji ki kahani – sulakshnaa वे कई दिनों से नहीं मिली थीं। मन ही मन पुकार रहा था, शायद! शाम ढलने के बाद जब मैस के लिए निकल रहा था,  अचानक हंसती-मुस्कराती सामने आ खड़ी हुईं।… दिल उन्हें पाते ही जोर-जोर से उछलने लगा।                ‘कहां जा रहे हो, जितेन!’ उन्होंने मीठे स्वर में पूछा!                ‘खाने के लिए….’ मैं मुस्कराया।                ‘चलो, आज कहीं बाहर चलते हैं, वहीं खा-पी लेंगे।’ उन्होंने अधिकारपूर्वक कहा। दिल की धक्धक् और तेज हो गई। सौभाग्य ओरछोर बरस रहा था। मदहोश-सा मैं उनके क़दम से क़दम मिला कर चल पड़ा… फिर कब हमने ऑटो लिया और कब ‘फेमिली हट्ज’ पहुंच गए, जैसे- पता नहीं चला।      अपने शहर से बी.एस-सी. करके यहां साइकोलॉजी में एम.ए. करने आया था। वे यदाकदा मैट्रो में मिल जाती थीं। जाने क्या जादू था उस चितवन में कि मैं दो-तीन दिन तक भुला नहीं पाता। पर पूछ भी नहीं पाता कि आप आगे कहां तक जाती हैं, कहां काम करती हैं- मिस?                दिल हरदम एक मिठास से भरा रहता। वे अतिशय प्रिय लगतीं। सम्माननीय और संभ्रांत भी। न उनके बगल में बैठने की हिम्मत पड़ती, न बात करने की। वहां वे अक्सर अपना बैग, छतरी या कोई पुस्तक रख लेती थीं।                पर एक दिन मुझे उनके सामने ही गैलरी में खड़ा होना पड़ा तो उन्होंने अपने चेहरे से लट हटा कर सीट से बैग उठाते हुए धीरे से कहा, ‘बैठ जाइये… खाली है।’                शायद, वह शुरूआत थी। देर तक उनकी मीठी आवाज और किंचित किंतु मोहक मुस्कान मेरी चेतना पर छाई रही। मुझे अपने स्टेशन का ख्याल ही नहीं रहा। वे जब उतरने लगीं तब चौंका। पर कम से कम यह जान गया कि वे यहां तक आती हैं! हमेशा बौद्धिक बातें करतीं। बात करते-करते एक दिन उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें तुम्हारे इस पारंपरिक नाम के वजाय सिर्फ जितेन कहं- तो बुरा तो नहीं मानोगे।’                कुछ दिनों बाद शहर में फिल्म महोत्सव चल रहा था। एक दिन अचानक मेरी नज़र पड़ी- वे एक तगड़े-से आदमी के साथ मेरे पीछे वाली लाइन में बैठी थीं! फिर मुझे पता नहीं चला कि हॉल में कौन-सी फिल्म चली और उसकी कहानी क्या थी? मैं साइकोलॉजी में एम.ए. कर रहा था… मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आ रहा था।                  तब वह बरस ऐसे ही चुपचाप बीत गया। दिल की चोट भुला कर मैंने पढ़ाई में चित्त दे लिया। मैंने अपना रिजल्ट बिगड़ने से बचा लिया।                पर अगले सत्र की शुरूआत में एक शाम वे दोनों फिर एक थियेटर में मिल गए मुझे! उनकी मांग में सिंदूर की हल्की टिपकी और भंवो के बीच लाल  बिंदी देख कर मैं इतना आहत हुआ कि नाटक बीच में छोड़ कर चल दिया। वे पीछा करती हुई गैलरी तक आ र्गइं। और बेहाल-सी पुकारने लगीं-                ‘जितेन… जितेन… सुनो-तो, इतने दिनों से कहां थे तुम…’                मैंने पलट कर देखा- उनके चेहरे पर चमक पर आंखों और आवाज में बला की घबराहट थी। जैसे, वे सिर्फ मुझी को चाहती हों! मुझे ही ढूंढ़ रही हों… और अब बिछुड़ जाने की आशंका से व्याकुल हिरणी की भांति छटपटा रही हों!                मेरे मुंह से कोई बोल नहीं फूटा। आंखों में आंसू उमड़ आए थे। तब वे पहली बार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं, ‘अच्छा-ठीक है, तुम्हारा मन खराब है… चले जाओ अभी, लेकिन कल मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।’                और उनकी ओर देखे बगैर पॉकेट से अपना एड्रेस कार्ड निकाल कर उनके हाथ पर रख कर मैं भागता-सा चला आया। अगले दिन जानबूझ कर दिन भर अपने कमरे पर नहीं रहा। जू में भटका और जानवरों में उन्हें तलाश करता फिरा। घड़ियाल के आंसुओं की तुलना में मुझे उनके आंसू मिले… तेंदुओं के धब्बे चीतों और बाघों तक आते-आते धारियों में बदल गए थेे, पर उनके बीज बिल्लियों में मौजूद हैं… यह मैं जान गया था। शाम को जैसे ही गेट खोला नज़र देहरी से चिपक कर रह गई। वहां एक फोल्ड किया हुआ कागज पड़ा था, जिस पर लिखा था- ‘तुम्हारी, सु’।                दिल सहसा ही धड़कने लगा।              सुबह देर से हुई। और तब एक व्यथित हृदय मुझे फिर उनके पास ले जा पहुंचा।                उन्हें जैसे, खबर थी, मैं पहुंचूंगा! वे पहले ही आधे दिन की छुट्टी की अरजी दे चुकी    थीं। मुझे एक गिलास पानी पिला कर बोलीं, ‘कॉफी पिओगे?’                ‘इन दिनों में तो मुझे कोक पसंद है।’ मैंने भी अपनी ओर से सहजता का परिचय दिया। वे मुस्करा कर अपना बैग कंधे पर डाल कर क़दम से क़दम मिला उठीं।                मैंने कनखियों से देखा- न मांग में सिंदूर की टिपकी, न माथे पर बिंदी। क्रीम कलर के सलवार सूट और उससे मैच करती जूतियों में वे फिर एवरग्रीन नज़र आ रही थीं। कुछेक मिनट बाद हम अशोक वृक्षों से भरे बगीचे में पहुंच गए। एक साफसुथरी बैंच की ओर उन्होंने इशारा किया और हम एक साथ बढ़ कर उसी पर बैठ गए। और मैं अभी भी इधर-उधर देखने का यत्न कर रहा था, जबकि वे खासतौर से मुझी से नज़रें मिलाना चाहती थीं! आखिरकार मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से बोलीं, ‘देखो- बसंत आ गया!’                तब चिहुंक कर मैंने धीरे से अपना हाथ छुडा लिया।                ‘वे मेरे पति हैं, जितेन!’ उन्होंने समझाने की कोशिश की।                ‘जानता हूं!’ मैंने खीजे हुए स्वर में कहा। जैसे पहले से भरा बैठा था।                सहसा वे नर्वस हो र्गइंं। बेचारगी के साथ बोलीं, ‘इसका मतलब यह कि अब मेरे लिए सारे रास्ते बंद हो गए…!’ मैं बोला नहीं।  हमलोग चुपचाप उठ गए। न मैंने कोक मांगा न उन्होंने कॉफी पिलाई। और मैं जानता था कि इस साल मुझे 60 परसेंट तक गाड़ी खींचनी थी। आउट ऑफ 55 परसेंट नहीं बनी तो पी.एच-डी. धरी रह जाएगी। …लेकिन मेरा मन उन्होंने चुरा लिया था। हार कर मैं फिर से मैट्रो रूट से अपने कॉलेज जाने लगा। और वे कई दिन तक नहीं मिलीं तो एक दिन धड़कते दिल से उनके दफ्तर भी पहुंच गया। पता चला वे रिजाइन कर गई हैं! अब उनका चेहरा मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वे तो जैसे इस महानगरीय जनसमुद्र में बंूद की तरह विलीन हो गई थीं। मैं बार-बार पछताता मैंने ख्वामख्वाह वियोग का वरण कर अपना जीवन नर्क बना लिया। कैरियर गड्ढे में धकेल दिया। आज मैं समझ सकता हूं कि किसी के साथ विवाह हो जाने से आत्मा रहन नहीं हो जाती। मन को कोई बांध नहीं सकता…। हम कितने मूर्ख हैं! जीवन अस्थाई है और फेरे डाल कर स्वामित्व का भरम पालते हैं। एक गतिशील देह को अपने अधिकार में लेकर जड़ कर देना चाहते हैं। जैसे- यह भी कोई नदी हो! सहसा एक दिन रेडियो एफ.एम. पर मुझे उनका मोहक स्वर फिर सुनाई पड़ा! डूबते दिल को जैसे सहारा मिल गया।… अगले दिन मैं सीधा रेडियो स्टेशन पहुंच गया। पता चला, वे कैजुअल आर्टिस्ट हैं। स्टूडियो से निकलने में उन्हें एक घंटे की देर थी। […]

इज्जत के रहवर

इज्जत के रहवर PADMA SHARAMA KI KAHANI इज्जत के रहवर सारा कस्बा सन्न रह गया । पुलिस के जासूस लगातार तलाश रहे थे कि यह वारदात किसने की?, लेकिन कहीं से कोई सूत्र नहीं मिल रहा था। बल्लू भी चकित था। जाने क्यों वह बार-बार खो जाता है सांझ से बार-बार कहीं अतीत में। उसे […]