समीक्षा
तंत्र के मख़ौल का जवाब- “हल्ला” (रामभरोसे मिश्रा)
राजनारायण बोहरे का नया कहानी संग्रह “हल्ला” पिछले दिनों इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के यहां से प्रकाशित होकर आया है। इस संग्रह में रोचक ढंग से लिखी राज बोहरे की 10 कहानियाँ शामिल हैं। यह कहानियां पाठक को गहरे से प्रभावित करती हैं, कहानी शुरू होते ही पाठक को अपने दायरे में ले लेती हैं ।
इस संग्रह की पहली कहानी “हल्ला” कथा सँग्रह की शीर्षक कहानी भी है। इस कहानी में पुराने लगान को छूट के साथ जमा कराने के वास्ते सरकार के लाये गए एक अभियान के विरुद्ध एक ईमानदार सरकारी अधिकारी तहसीलदार बजाज साहब का जब कुछ गुंडे नुमा किसान अपमान करते हैं तब केवल वचनों के आश्वासन तो दूसरे अधिकारी देते हैं, पर किसान वेश में आए वास्तविक अपराधियों से बदला लेने बजाज साहब के समर्थन में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी एकत्रित होते हैं। संग्रह की कहानी “हड़ताल जारी है ” कहानी में समाज सेवक गोपाल बाबू उड़ीसा से बाढ़ पीड़ितों के दल के साथ कस्बे में आई मीना को अपने शहर के बाहर की कोठी में बुलाते हैं , वहां दानवाकार गोपाल बाबू उसके साथ बलात्कार पर आमादा है। किसी तरह कोठी से भागकर हॉस्टल के कैंपस में मीना की हालत और पीछे आते गोपाल बाबू को देखकर वॉलीबॉल खेल रहे बच्चे माज़रा समझ जाते हैं। अगले दिन से कस्बे में हड़तालों का दौर शुरू हो जाता है । संग्रह की “रिटायरमेंट” कहानी में एक ऐसे ईमानदार अधिकारी की कथा को लेखक पाठकों के समक्ष लाता है जिसमें सरकारी नौकरी ज्वाइन करता युवक पिता द्वारा कहे गए इस वाक्य को सिर माथे स्वीकार कर लेता है कि ‘कभी लांच खाच मत लेना। ‘ ‘डेली एक्सप्रेस ‘ ‘ इस संग्रह की डेली अप डाउन करने वालों की कुछ विशिष्ट सी कहानी है। इस यात्रा में किसी स्टेशन से गाने वाला चढ़ता है, तो किसी से कीर्तन करने वाले चढ़ते हैं । किसी स्टेशन से किन्नर चढ़ता है तो कहीं चाट,चने और ककड़ी बेचने वाली महिलाएं कुछ लोग अंताक्षरी खेलते हैं तो कुछ लोग ताश । अलग सामाजिक परिवेश के ये लोग भीतर से परस्पर जुड़े हैं और भारतीय रेलवे के प्रति कृतज्ञ भी हैं । यह कहानी लौटती हुई गाड़ी के एक्सीडेंट पर खत्म होती है। दैनिक आवागमन करने वाले लोग अपने आप को भुलाकर उन यात्रियों की सेवा करने में जुट जाते हैं जो इस दुर्घटना में हताहत हुए हैं या डर गए हैं ।
इस संग्रह की एक कहानी है ‘‘भिड़न्त’’ दरअसल एक शिक्षक की कहानी है। पटेल द्वारा की गई शिकायत की जांच करने उस वक़्त जिला शिक्षा अधिकारी गांव आ रहा है तब उस जिला शिक्षा अधिकारी से भिड़ंत के लिए शिक्षक न केवल आत्मविश्वास से भरा है ,बल्कि इसे भी अपनी परीक्षा समझ रहा है। गांव के जिस दलित मोहल्ले को उसने अब तक अपनी शैक्षणिक गतिविधियों का केंद्र बनाया था, उस मोहल्ला के लोग खुद आकर जिला शिक्षा अधिकारी के समक्ष अपनी बात रखेगें कि यह अध्यापक किसी दण्डनीय कार्यवाही के योग्य नहीं हैं, यह तो पुरस्कार के योग्य है।
‘‘अपनी खातिर’’ कहानी की नायिका कामदा का बचपन में विवाह एक उम्र दराज द्विजवर व्यक्ति से हो गया है, जिसे वह पहली रात ही छोड़ आई है, और टाइपिंग परीक्षा पास कर एक दफ्तर में वह क्लर्क की नौकरी पा चुकी है । दफ्तर में एक फील्ड ऑफिसर युवक से उसका प्रेम प्रसंग चल रहा है। अचानक एक दिन खबर लगती है कि युवक के घर वाले उसका अन्यत्र विवाह कर रहे हैं। कहानी इस निष्कर्ष के साथ खत्म होती है कि अपने बेमेल पूर्व पति को छोड़ना, नौकरी करना किसी और के वास्ते नहीं था बल्कि कामदा खुद के लिए कर रही थी-
लेकिन कामदा ने विशन से अलग और आजाद होने का फैसला कपिल की खातिर ही नहीं लिया था, ‘अपनी खातिर’ भी वह ऐसा ही चाहती थी। (पृष्ठ 110)
‘कामदा यानी हर लड़की ‘अपनी खातिर’ , अपने जीवन के खातिर , हर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है।‘ इस संदेश व आत्मविश्वास को दुहराती हुई आज की स्त्री की कहानी है यह ।
सँग्रह की कहानियों में ‘“समय” ‘सखी’ और ‘इलाज’ भी है । ‘समय’ में कथाकार का शिल्प गजब का है,जब पोटली से निकलती एक – एक चीज खुद से जुडी घटना को याद दिलाकर कथा नायक के मन को बचपन के संघर्ष भरे दिन में ले जाती है। ‘सखी’ में एक लेखक के प्रेम प्रसंग का किस्सा है,जहाँ नायिका के घर आ जाने पर घर भर के लोग परम सुखी हो गये है। तो इलाज में झोलाछाप डॉक्टर का जिक्र है । मनुष्य व पशुओं के (दोनों प्रकार के )डॉक्टरों से सीखे गए हुनर के साथ चिकित्सा आरंभ करने वाले डॉक्टर को कितनी दिक्कतें आती हैं ,इसका रोचक विवरण इस कहानी में है।
संग्रह का कुल आकार बड़ा नहीं है, लेकिन इसकी दो कहानियां बाकी कहानियों की तुलना में काफी लंबी हैं । ‘डेली एक्सप्रेस ‘ व “समय” कहानियों में किस्सागोई, दिलचस्पी, रोचकता सहज रूप से आगयी है जो लेखक का अपना विशिष्ट गुण है।
राज बोहरे की कहानियों में समाज में प्रचलित रीति-रिवाज, संस्कृति व लोकगीत सहज रूप से आते हैं । कहानी ‘‘अपनी खातिर’ ‘में कामदा को रात को नींद नहीं आ रही है। वह अपने छत पर टहल रही है कि दूर कहीं ढोलक से के साथ गा रही महिलाओं का गीत उसके कानों में गूंजता है-
बालापन की प्रीत सखी री बड़ी रंगीली होए ! सखी री बड़ी रसीली होए !… (पृष्ठ 105)
इस कहानी में न केवल दृश्य बल्कि संवाद भी पाठक के मन में उतर जाते है संवाद न केवल जीवंत है, बल्कि पाठकों के समक्ष दृश्य भी बनाते हैं । इन्हें पढ़कर पाठक कहानी के भीतर आहिस्ता से प्रवेश कर जाता है ।
राज बोहरे दर्शनशास्त्र के लंबे चौड़े विचार नहीं लिखते, बल्कि ऐसे किस्से और कहानियां लिखते हैं, जिनके भीतर संदेश और विचार गहरे तक पैबस्त होता है। संग्रह की लगभग सभी कहानियों के चरित्र जितने बाहर से वाचाल दिखते हैं उतने भीतर से बंद हैं । वे द्वंद में गुम हुए नजर आते हैं । “हल्ला” के बजाज साहब, ‘“समय” कहानी का नायक, इलाज का डॉक्टर फकीरचंद, हड़ताल जारी हैं के खलनायक गोपाल जी, ‘अपनी खातिर’ की कामदा सब जीते जागते विचारशील लोग हैं ।
इन कहानियों के कुछ कमजोर पक्ष भी हैं । ‘“समय” ’ में जहां न तो एक पूरा दृश्य दिखाई देता है , वहीं कथा नायक और उस की मां के संघर्षमय जीवन की पूरी कथा पाठक के सामने कभी नहीं खुलती, तो ‘ “हल्ला” ’ के भारत में पदीय रूप से खलनायक रहा तहसीलदार का पद सहानुभूति नहीं प्राप्त कर पाता । ‘इलाज’ में चिकित्सा कर रहा झोला छाप डॉक्टर सहज रूप से लोकमानस में वैसा विश्वसनीय नहीं है, तो ‘मलंगी’ कहानी में एक कुतिया का लंगूर के साथ दोस्ताना प्रेम भी उतना विश्वसनीय नहीं लगता । इन तमाम कमजोरियों के बाद भी राज बोहरे का संग्रह अपनी कई रोचक चरित्रों , नए नए मुद्दों और कहानी के अलग-अलग सहज शिल्प की वजह से पठनीय बन पड़ा है, क़िस्सागोई के अन्दाज़ में कही गयी कथाओं का यह सँग्रह अपनी अलग जगह बनाने में कामयाब हुआ है।
पुस्तक-हल्ला (कहानी संग्रह)
लेखक-राजनारायण बोहरे
समीक्षक-रामभरोसे मिश्रा